गज़ल:- ॥ करम ॥

गज़ल:- ॥ करम ॥

करम है उसका कोई बद्दूआ नहीँ लगती।
मेरे चिराग जले तो हवा नहीँ लगती॥

तुम्हारे प्यार की जंजीर मेँ बँधा हुँ मैँ।
सजा ये कैसी मिली, सजा ही नहीँ लगती॥

ये जिन्दगी जो तुम्हारी नजर मेँ मुजरिम है।
मेरी निगाह से देखो तो क्या नहीँ लगती॥

बस एक लम्हा सब कुछ बदल कर रख देगा।
किसी को मौत की आहट भी पता नहीँ लगती॥

अगर ज़माना है नाराज, तो रहे नाराज।
हमेँ कोई तुम्हारी ख़ता नहीँ लगती॥

फकीर सारे जहाँ को दुआएँ देते है।
बस एक हमारे ही दर पर सदा नहीँ लगती॥R॥
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